आज मैं महाराणा प्रताप की एक मासूम सी बेटी की कहानी लिख रहा हूँ। जिसमें किस प्रकार से वह लड़की अपना बलिदान दे देती है। यह लड़की एक अतिथि के सत्कार के लिए अपने जीवन का बलिदान कर देती है। इस कहानी को शुरू करने से पहले महाराणा प्रताप में एक-दो लाइन जान लेते है। महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को कुंभलगढ़ ( राजस्थान ) किले में हुआ था। इनके पिता का नाम महाराणा उदयसिंह तथा माता का नाम महारानी जयवंतबाई थी।
मेवाड़ के गौरव हिन्दू कुल के सूर्य महाराणा प्रताप अरावली के वनों में उन दिनों भटक रहे थे। महाराणा प्रताप को अकेले वन-वन घूमना पड़ता तो कोई बात नहीं था बल्कि उनके साथ थी महारानी, अबोध राजकुमार और छोटी सी राजकुमारी। उनके पीछे अकबर के जैसी ताकतवर दुश्मन की सेना जो पीछे पड़ी थी। उससे बचने के कभी गुफा में, कभी वन में तो कभी किसी नाले में रात काटनी पड़ती थी। वह के कंद फल भी खाने के लिए बहुत मुश्किल से मिल पाता था। घास के बीजों का रोटी भी खाने के लिए कई दिनों के बाद मिलता था। उनके लिए यह ऐसा मुश्किल समय आ गया था कि वे खाने के लिए तक तरश रहे थे।
भोजन के आभाव के कारण बच्चे सूखकर कंकाल हो रहे थे। विपत्ति के इसी समय में महाराणा प्रताप को एक बार अपने परिवार के साथ कई दिनों तक उपवास करना पड़ा। बहुत कठिनाई से एक दिन घास के बीज की रोटी बनी वो भी केवल एक। महाराणा प्रताप और महारानी तो पानी पीकर भी अपना समय बिता लेते थे लेकिन बच्चे पानी पीकर कैसे रहते। राजकुमार बिल्कुल अबोध था, उसे कुछ-न-कुछ भोजन तो देना ही था और राजकुमारी भी बालिका ही थी। दोनों बच्चे को माता ने आधी-आधी रोटी दे दी। राजकुमार ने अपनी आधी रोटी को जल्दी से खा लिया लेकिन राजकुमारी छोटी होने पर भी हालात को समझती थी।
उसे ये चिंता भी थी की छोटा भाई कुछ समय बाद भूख से रोएगा तो उसे खाने को क्या दिया जायेगा। हालाँकि खुद राजकुमारी को कई दिनों से खाने के लिए कुछ नही मिला था। लेकिन भाई के बारे सोचकर उसने अपनी आधी रोटी को पत्थर के नीचे दबाकर सुरक्षित रख दी। संयोग वश वहाँ वन में भी एक अतिथि महाराज महाराणा प्रताप से मिलने आ पहुँचे। महाराणा प्रताप ने उन्हें पत्ते बिछाकर बैठाया और पैर धोने के लिए पानी भी दिया। इतना करके वे इधर उधर देखने लगे।
आज मेवाड़ के अधीश्वर के पास अतिथि को जल के साथ खिलाने के लिए चने का चार दाना भी नहीं था लेकिन महाराणा प्रताप की बेटी ने अपने पिता के भाव को समझ लिया। उसने अपने भाग्य की आधी रोटी का टुकड़ा पत्ते पर रख कर ले आयी और उसे अतिथि के सम्मुख रख कर बोली - देव आप इसे ग्रहण करे। हमारे पास आपका सत्कार करने योग्य कुछ भी नहीं बचा है। अतिथि ने वो रोटी खाया और जल भी पिया। इसके बाद अतिथि वहाँ से विदा लेकर चला गया। अतिथि के जाने के बाद राजकुमारी मूर्छित होकर गिर पड़ी, क्योंकि वह भूख से दुर्बल और कमजोर हो चुकी थी।
राजकुमारी का ये मूर्छा अंतिम मूर्छा बन गया। महाराणा प्रताप की पुत्री ने अतिथि के सत्कार के लिए आधी रोटी ही नही दी बल्कि अपने जीवन का बलिदान भी कर दी।
हमें आशा है कि आपको इस कहानी से कुछ सीख जरूर मिली है। आपको इस कहानी से कौन-सी सीख मिली है हमे नीचे कमेंट में लिखकर जरूर बताये।
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मेवाड़ के गौरव हिन्दू कुल के सूर्य महाराणा प्रताप अरावली के वनों में उन दिनों भटक रहे थे। महाराणा प्रताप को अकेले वन-वन घूमना पड़ता तो कोई बात नहीं था बल्कि उनके साथ थी महारानी, अबोध राजकुमार और छोटी सी राजकुमारी। उनके पीछे अकबर के जैसी ताकतवर दुश्मन की सेना जो पीछे पड़ी थी। उससे बचने के कभी गुफा में, कभी वन में तो कभी किसी नाले में रात काटनी पड़ती थी। वह के कंद फल भी खाने के लिए बहुत मुश्किल से मिल पाता था। घास के बीजों का रोटी भी खाने के लिए कई दिनों के बाद मिलता था। उनके लिए यह ऐसा मुश्किल समय आ गया था कि वे खाने के लिए तक तरश रहे थे।
भोजन के आभाव के कारण बच्चे सूखकर कंकाल हो रहे थे। विपत्ति के इसी समय में महाराणा प्रताप को एक बार अपने परिवार के साथ कई दिनों तक उपवास करना पड़ा। बहुत कठिनाई से एक दिन घास के बीज की रोटी बनी वो भी केवल एक। महाराणा प्रताप और महारानी तो पानी पीकर भी अपना समय बिता लेते थे लेकिन बच्चे पानी पीकर कैसे रहते। राजकुमार बिल्कुल अबोध था, उसे कुछ-न-कुछ भोजन तो देना ही था और राजकुमारी भी बालिका ही थी। दोनों बच्चे को माता ने आधी-आधी रोटी दे दी। राजकुमार ने अपनी आधी रोटी को जल्दी से खा लिया लेकिन राजकुमारी छोटी होने पर भी हालात को समझती थी।
उसे ये चिंता भी थी की छोटा भाई कुछ समय बाद भूख से रोएगा तो उसे खाने को क्या दिया जायेगा। हालाँकि खुद राजकुमारी को कई दिनों से खाने के लिए कुछ नही मिला था। लेकिन भाई के बारे सोचकर उसने अपनी आधी रोटी को पत्थर के नीचे दबाकर सुरक्षित रख दी। संयोग वश वहाँ वन में भी एक अतिथि महाराज महाराणा प्रताप से मिलने आ पहुँचे। महाराणा प्रताप ने उन्हें पत्ते बिछाकर बैठाया और पैर धोने के लिए पानी भी दिया। इतना करके वे इधर उधर देखने लगे।
आज मेवाड़ के अधीश्वर के पास अतिथि को जल के साथ खिलाने के लिए चने का चार दाना भी नहीं था लेकिन महाराणा प्रताप की बेटी ने अपने पिता के भाव को समझ लिया। उसने अपने भाग्य की आधी रोटी का टुकड़ा पत्ते पर रख कर ले आयी और उसे अतिथि के सम्मुख रख कर बोली - देव आप इसे ग्रहण करे। हमारे पास आपका सत्कार करने योग्य कुछ भी नहीं बचा है। अतिथि ने वो रोटी खाया और जल भी पिया। इसके बाद अतिथि वहाँ से विदा लेकर चला गया। अतिथि के जाने के बाद राजकुमारी मूर्छित होकर गिर पड़ी, क्योंकि वह भूख से दुर्बल और कमजोर हो चुकी थी।
राजकुमारी का ये मूर्छा अंतिम मूर्छा बन गया। महाराणा प्रताप की पुत्री ने अतिथि के सत्कार के लिए आधी रोटी ही नही दी बल्कि अपने जीवन का बलिदान भी कर दी।
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